आखिरकार 200 सालों में कितना बदल गया भारतीय पत्रकारिता का स्वभाव।
हमने क्या लिया और क्या देंगे हम आने वाली पीढ़ी को
साल 1819 में देश में पहली बार विशुद्ध भारतीय समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू हुआ था जिस के प्रकाशक थे राजा राममोहन राय।
बंगाली भाषा में प्रकाशित इस समाचार पत्र का नाम था "संवाद कौमुदी", जिस का हिंदी अर्थ होता है बुद्धि का चांद।
इसके बाद कई भाषाई और हिंदी अखबार भारत में चालू भी हुए और बंद भी हुए। लेकिन एक समानता सभी अखबारों में समान थी। वह था उस वक्त के प्रकाशको और पत्रकारों ने अपनी कलम को समाज और राष्ट्र की सेवा का माध्यम बनाया। सती प्रथा बाल विवाह जातिवाद आडंबर का उन्मूलन करने में सही मायनों में अखबार ने महती भूमिका निभाई थी। इतना ही नहीं देश में क्रांतिकारी भावना को जगाने में राष्ट्र को एकजुट करने में इन अखबारों ने अमूल्य योगदान दिया था।
लेकिन पत्रकारिता और समाचार पत्र के विकास के 200 साल पूरे होने पर जो स्थिति बनी है वह बहुत ही अफसोसजनक और पीड़ादायक।
कहने में अच्छा तो नहीं लगता लेकिन हकीकत यही है कि आज की पत्रकारिता मैं समाज सेवा, मानवता, करुणा, समाज और देश के प्रति कुछ कर गुजरने या उसमें परिवर्तन लाने की भावना समाप्त हो गई है। लगता है आज के समाचार पत्र और पत्रकार सिर्फ एक ही भावनाओं को पकड़ कर बैठे हैं कि उन्हें स्वयं का महत्व तो दिखाना है, अधिकार जताना है लेकिन जब बात कर्तव्य की हो तो उस वक्त पीठ दिखा कर निकल जाना है।
केवल पैसे और पैसे के लिए आज के प्रकाशक और पत्रकार दिन रात एक किए हुए। उनमें इतना तक भाव नहीं है कि वह जो समाचार लिख रहे हैं उससे समाज में देश में प्रतिकूल या अनुकूल प्रभाव पड़ेगा, समाज वैचारिक रूप से उन्नत होगा या वैचारिक रूप से नीचे गिरेगा, उस समाचार का महत्व आमजन के जीवन को सुगम बनाएगा या दुर्गम कर देगा, इत्यादि इत्यादि अनेकों अनेक चीजों को दरकिनार कर केवल अपने और अपने प्रकाशक के लिए लाभ कमाने तक आज की पत्रकारिता ठहर सी गई है।
क्या भारत अपने पूर्ण विकास को प्राप्त कर चुका है, क्या आम जनजीवन दुनिया के सर्वश्रेष्ठ जीवन यापन और विकल्पों का चयन कर चुकी है, यदि नहीं तो पत्रकारिता का यह स्वरूप वास्तव में भयावह और डराने वाला है।
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